अनासक्तियोग । मोक्षके योग्य नहीं बन सकता । केवल बुद्धिशक्तिको ही काममें लावे और शरीर तथा आत्माको चुरावे तो वह पूरा याज्ञिक नहीं है । इन शक्तियोंको प्राप्त किये बिना उसका परोपकारार्थ उपयोग नहीं हो सकता। इसलिए आत्म-शुद्धिके बिना लोकसेवा असंभव है। सेवकको शरीर, बुद्धि और आत्मा अर्थात् नीति, तीनोंका समानरूपसे विकास करना कर्तव्य है। श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप । सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥३३॥ हे परंतप ! द्रव्ययज्ञकी अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अधिक अच्छा है, क्योंकि हे पार्थ ! कर्ममात्र ज्ञानमें ही परा. काष्ठाको पहुंचते हैं। टिप्पणी---परोपकारवृत्तिसे दिया हुआ द्रव्य भी यदि ज्ञानपूर्वक न दिया गया हो तो बहुत बार हानि करता है, यह किसने अनुभव नही किया है ? अच्छी वृत्तिसे होनेवाले सब कर्म तभी शोभा देते है जब उनके साथ ज्ञानका मेल हो। इसलिए कर्ममात्रकी पूर्णाहुति तो ज्ञानमें ही है। तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन 'सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वर्शिनः ॥३४॥ इसे तू तत्त्वको जाननेवाले ज्ञानियोंकी सेवा करके
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