पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रनासक्तियोग अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः । सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ॥३६॥ तू समस्त पापियोंमें बड़े-से-बड़ा पापी होनेपर भी ज्ञानरूपी नौकाद्वारा सब पापोंको पार कर जायगा। ३६ यथधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥३७॥ हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईधनको भस्म कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सब कर्मोंको भस्म कर देता है। न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥३८।। ज्ञानके समान इस संसारमें दूसरा कुछ पवित्र नहीं है। योगमें--समत्वमें पूर्णताप्राप्त मनुष्य समयपर अपने-आपमें उस ज्ञानको पाता है। ३८ श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्ति- मचिरेणाधिगच्छति ॥३९॥ श्रद्धावान ईश्वरपरायण, जितेंद्रिय पुरुष ज्ञान पाता है और ज्ञान पाकर तुरंत परमशांतिको पाता है। ३९ अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥४०॥ तत्परः