पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/८३

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चौबा मचाय: मानकर्मसंन्यासयोग ४० जो अज्ञानी और श्रद्धारहित होकर संशयवान है, उसका नाश होता है । संशयवानके लिए न तो यह लोक है, न परलोक । उसे कहीं सुख नहीं है । योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् । आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ॥४१॥ जिसने समत्वरूपी योगद्वारा कर्मोंको अर्थात् कर्म- फलका त्याग किया है और ज्ञानद्वारा संशयको छिन्न कर डाला है वैसे आत्मदर्शीको हे धनंजय ! कर्म बंधन- रूप नहीं होते। तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः । छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥४२॥ इसलिए हे भारत ! हृदयमें अज्ञानसे उत्पन्न हुए संशयको आत्मज्ञानरूपी तलवारसे नाश करके योग-- समत्व धारण करके खड़ा हो । ४२ ॐ तत्सत् इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद अर्थात् ब्रह्म- विद्यांतर्गत योगशास्त्रके श्रीकृष्णार्जुनसंवादका 'ज्ञानकर्म- संन्यासयोग' नामक चौथा अध्याय ।