पांचवां मध्याव: कर्मसंन्यासयोग जो मनुष्य द्वेष नहीं करता और इच्छा नहीं करता, उसे नित्य संन्यासी जानना चाहिए। जो सुख-दुःखादि मुंबसे मुक्त है, वह सहजमें बंधनोंसे छूट जाता है । ३ टिप्पनी तात्पर्य, कर्मका त्याग संन्यासका खास लक्षण नहीं है, बल्कि द्वंद्वातीत होना ही है-एक मनुष्य कर्म करता हुआ भी संन्यासी हो सकता है। दूसरा, कर्म न करते हुए भी, मिथ्याचारी हो सकता है। (देखो अध्याय ३, श्लोक ६) सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिताः । एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोविन्दते फलम् ।। ४ ।। सांख्य और योग-ज्ञान और कर्म-ये दो भिन्न हैं, ऐसा अज्ञानी कहते हैं, पंडित नहीं कहते । एकमें अच्छी तरह स्थिर रहनेवाला भी दोनोंका फल. पाता ४ टिप्पली-ज्ञानयोगी लोकसंग्रहरूपी कर्मयोगका विशेष फल संकल्पमात्रसे प्राप्त करता है। कर्मयोगी अपनी अनासक्तिके कारण बाह्य कर्म करते हुए भी ज्ञानयोगीकी शांतिका अधिकारी अनायास बनता है। यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।। ५ ।। जो स्थान सांख्यमार्गी पाता है वही योगी भी पाता
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