पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/८६

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मनासहितमोग ५ है। जो सांख्य और योगको एक रूप देखता है वही सच्चा देखनेवाला है। संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः । योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥ ६ ॥ हे महाबाहो ! कर्मयोगके बिना कर्मत्याग कष्ट- साध्य है, परंतु समभाववाला मुनि शीघ्र मोक्ष पाता ६ योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः । सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।। ७ ।। जिसने योग साधा है, जिसने हृदयको विशुद्ध किया है, जिसने मन और इंद्रियोंको जीता है और जो भूतमात्र- को अपने जैसा ही समझता है, ऐसा मनुष्य कर्म करते हुए भी उससे अलिप्त रहता है। नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् । पश्यशृण्वन्स्पृशघिनश्नन्गच्छन्स्वपश्वसन् ॥८॥ प्रलपन्विसृजन्ग हुन्मुन्मिष निमिषन्नपि इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥९॥ देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूंघते, खाते, चलते, सोते, सांस लेते, बोलते, छोड़ते, लेते, आंख खोलते, मूंदते केवल इंद्रियां ही अपना काम करती हैं, ऐसी भावना रखकर तत्त्वज्ञ योगी यह समझे कि 'मैं कुछ भी नहीं करता हूं।" ८-९ . 1