पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/९४

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अनासक्तियोग . भृकुटीके बीच में स्थिर करके, नासिकाद्वारा आने-जाने- वाले प्राण और अपान वायुकी गतिको एक समान रखकर, इंद्रिय, मन और बुद्धिको वशमें करके तथा इच्छा, भय और क्रोधसे रहित होकर जो मुनि मोक्ष- 'परायण रहता है, वह सदा मुक्त ही है । २७-२८ टिप्पली-प्राणवायु अंदरसे बाहर निकलनेवाली और अपान बाहरसे अंदर जानेवाली वायु है। इन श्लोकोंमें प्राणायामादि यौगिक क्रियाओंका समर्थन है। प्राणायामादि तो बाह्य क्रियाएँ हैं और उनका प्रभाव शरीरको स्वस्थ रखने और परमात्माके रहने- योग्य मंदिर बनानेतक ही परिमित है। भोगीका साधारण व्यायामादिसे जो काम निकलता है, वही योगीका प्राणायामादिसे निकलता है। भोगीके व्याया- मादि उसकी इंद्रियोंको उत्तेजित करने में सहायता पहुंचाते हैं। प्राणायामादि योगीके शरीरको नीरोगी और कठिन बनानेपर भी, इंद्रियोंको शांत रखने में सहायता करते हैं । आजकल प्राणायामादिकी विधि बहुत ही कम लोग जानते है और उनमें भी बहुत थोड़े उसका सदुपयोग करते हैं। जिसने इंद्रिय, मन और बुद्धिपर अधिक नहीं तो प्राथमिक विजय प्राप्त की है, जिसे मोक्षकी उत्कट अभिलाषा है, जिसने राग-