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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१००

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दया

यह मेरी अन्तरात्मा की पवित्र आज्ञा है। यह मेरे हृदय का श्रृंगार है। इसकी स्मृति से मन मे प्राण संजीवन होता है। मैं यह कार्य करूँगा। यह सच है कि वह मेरा कोई नहीं। वह पापी पतित है। उस पर सभी का कोप है। हाय! भगवान् का भी कोप है। कुछ उस पर क्रोध करते है, कुछ दुरदुराते है, कुछ घृणा करते है और कुछ अविश्वास करते हैं इतना सह कर वह कैसे जी सकेगा? इससे तो अच्छा यही है कि उसे लोग मार डालें। जिसे ठिकाना नहीं, आश्रय नहीं, उत्तेजन नहीं, प्रम नहीं, आदर नहीं, वह इस पृथ्वी पर स्वार्थ की हवा