पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/९९

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और कर्तव्य का प्रथम गुरु सन्तान है। व्यवहार का गुरु परिजन है। धर्म के गुरु पड़ौसी है। आचार के गुरु मित्र है। इस गुरु मंडली का अपमान करके अभागा पुरुष कहां जाता है? मैं घर मे रहूगा। मैं विरक्त न बनूंगा। मैं कर्म योग की दीक्षा लूंगा। मेरी समझ मे सब आ गया---अच्छी तरह आ गया। जैसे कमल का पत्ता पानी मे रह कर, पानी मे उत्पन्न होकर, पानी से अलग रहता है, मैं भी माया मे रह कर माया से अलिप्त रहूँगा। जैसे सूर्य पृथ्वी के रस को आकर्षण करके संसार पर वर्षा करता है, वैसे ही मैं धन, धर्म, धान्य, जन, सबको आकर्षण करूँगा और पुनः विसर्जन करूँगा। न मेरा है, न मेरा होगा, न मेरा किसी पर दावा है। मैं स्वामी नहीं हूं, इतनी भूल थी, आज उसे सुधारे देता हूं। मैं सबका हूं। इनसे अलग हो ही नहीं सकता। मैं बन्दी हू। मुझे स्वतन्त्र होने का अधिकार नहीं है। मै स्वतन्त्र, नहीं होऊँगा। मैं करूँगा, पर अपने लिये यहीं। लाभ हो या हानि। मुझे हर्ष न विषाद। जिसका बने बिगड़े उसका बने बिगड़े। मैं क्या मालिक हू। मुझे फल की न चाह न खबर। मैं बन्दी हू। करूँगा, भागूंगा नहीं। और कुछ मागूगा नहीं। मै बन्दी हूं।


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