पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१०३

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वैराग्य

अपने मजे की खातिर गुल छोड़ ही दिये जब।

सारी जहाँ के गुल्शन मेरे ही बन गये अब।

सबका फैसला हो गया, सबमे सन्धि हो गई। सब झझट हट गये। सब को छुट्टी है। इन्द्रियों को छुट्टी और मन को भी छुट्टी है। आत्मा और मैं, बस दोनों ही रहेगे। एक खेलेगा, एक देखेगा। सलाहकार और नुकताचीन सब गये। बड़ी सुन्दर व्यवस्था हुई---बड़ी ही सुन्दर। प्राण कैसा स्वच्छन्द हो रहा है! आहाहाहाहा! आत्मा प्रकाशित हो रही है। भीतर से ज्योति निकलती है। मन शान्त बैठा है। अब तक यह-सुख