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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१०५

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देखो, अपने भीतर की ओर देखो। कुछ मिलेगा? मटक रहे हो, तरस रहे हो, तड़प रहे हो, अरे अबोध जनो! किस लिये मिथ्या माया मे फँस गये हो? भ्रम मे भटक रहे हो? तन, मन और शांति को नष्ट करके कमाने मे लग रहे हो? इतना रुपया क्या करोगे? इतना क्या खा सकते हो? इतने बड़े महल क्यों बनाये है? पागल हो! मूर्ख हो! तस्मे के लिये भैंस हलाल करते हो? राई की प्राप्ति को पहाड़ परिश्रम करते हो? तुम्हें सुख कैसे मिलेगा? तुम्हारा कल्याण कैसे होगा? ईश्वर जानता है, तुम भटक रहे हो। जो मनुष्य परिश्रम तो करे ढेर और प्राप्त करे मुट्ठी भर, वह क्या बुद्धिमान है? यह मत समझो कि जो कमाते हो वह तुम्हारा है। इसी फेर में मरे हो! तुम इसमे से भोग कितना सकते हो? वही तुम्हारा है, बल्कि उसमे से भी कुछ अंश। यह सब त्यागो, इन्द्रियों की लगाम छोड़ दो, मन को बर्खास्त कर दो, आत्मा की उपासना करो, अपने आपको देखो---भीतर ही भीतर इतना क्यों दौड़ धूप करते हो? व्यर्थं थकते हो। जो है यही है। कस्तूरी मृग की तरह भटको मत। भगवान् तुम्हारा कल्याण करे। ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा, तुम्हारे मन मे न हो, प्रेम का प्रसार हो, आत्मा की ज्योति तुम्हारी पथप्रदर्शक हो। तुम अमर हो, तुम अमृत हो, तुम आत्मा हो, तुम ब्रह्म हो, तुम शुद्ध बुद्ध मुक्त हो। तथास्तु।



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