पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१०७

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कष्ट मिट गये। अब क्या काम हैं? ना। अब मैं तुझे नहीं चाहता। जा। वे दिन कट गये है। कितना लम्बा जीवन पथ काटा है। रास्ते भर चाहना ने उकसाया और आशा ने झांसे दिये, सिद्धि के नाम सदा दो धक्के मिले। मैंने सोचा, जब चल ही दिया हूँ, तो मञ्जिल तो तै करनी ही होगी। मैंने झूठ देखा न सच, पाप देखा न पुण्य, सिद्धि की आराधना की। जैसा बना, धर्म की हत्या की, आत्मसम्मान को जूते लगाये, स्वास्थ्य को सखिया दिया, सुख और शांति तक को दुर्वचन कहे। अन्त मे सिद्धि मिली है--मिली कहॉ मिलने को सिर्फ राजी हुई है। अब तू कहती है---"चलो अभी चलो!" ना, अभी नहीं। अभी तो थाल परस कर सामने आया है। तेरा कसूर नहीं। सारा समय तैयारी मे बीत गया। रसोई बनी ही बहुत देर से, इतनी देर से कि बनते बनते भूख मर गई, जठराग्नि जठर को खा कर बुझ गई, मन थक कर सोने लगा। पर जब बन ही गई है, तो खा लूँ---जरा चख लूँ। इतनी साधना की वस्तु कहीं छोड़ी जाती है? तू थोड़ी और कृपा कर, अभी जा! मेरी इच्छा होगी तो मैं फिर तुझे पुकार लूँगा। पहले भी तो पुकारा था। अनेक बार पुकारा था। तुझे शपथ है, बिना बुलाये मत आना। दुःख के दिन तो बीत गये, अब किसे मरने की चाह है?


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