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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१०८

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लौट नहीं सकती? किसी तरह नहीं? यह तो बड़ा अत्याचार है। अच्छा, किसी तरह भी नहीं? हाय! मैंने तो कुछ तैयारी भी नहीं की। यात्रा क्या छोटी है? यात्रा मे ही जीवन गया, अब फिर महायात्रा? हे भगवान्! यह कैसा संसार है? शास्त्र कहते है---'यह चक्र है।" अच्छी बात है--चक्र है तो घूमा करे। किसी का क्या हर्ज है? पर यह दूसरों को घुमाता क्यों है? किस मतलब से? किस अधिकार से? यह तो खासी धींगा मुश्ती है। बडा अत्यचार है। जब तक जीओ तब तक ससार यात्रा, और जीने के योग्य न रहो तो परलोक यात्रा! अभागा-जीव केवल नित्य यात्री है, जिसे विश्राम का अधिकार ही नही। हाय! पहले यह मालूम होता तो यह महल, यह सुख साज, ये ठाठ बाट, यह मोह मैत्री-व्यवहार क्यों बढ़ाता? इस महल की सफेदी के पीछे कितने दीनों का खून है? इस मेरे बिछौने के नीचे कितनों की रोटी का सत्त्व है? तब यह बात मालूम हो जाती, तो यह सब क्यों करता? सोचा था। एक दिन की बात तो है नहीं, जो दुःखम सुखम काट लें। मरने वाले मरें। घर आई लक्ष्मी को क्यों छोड़ें? हाय! अब उन्हें कहां पाऊँ। उनका ब्यर्थ शाप लिया। मृत्यु! थोड़ा ठहर। अब यह सम्पदा तो व्यर्थ ही है। ठहर! इसे उन्हें बॉट जाऊँ जिनके कण्ठ से निकाली


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