उस पार जाना जरूरी था। लालसा की नदी बेतरह चढ़ रही थी और किनारे की भूमि उर्वरा हो रही थी। पास मे सुख बहुत थोड़ा था। उसने कहा---"कुछ तुम्हारे पास है कुछ मेरे। आओ इसे बो दे। एक के हज़ार होंगे। अभी जिन्दगी बहुत है। इतने से कैसे चलेगा?" मेरा दिल घावों से छलनी हुआ पड़ा था, न मुझे रुचि थी, न उत्साह, न होंस। इसके सिवा, मुझे बोने का तजुर्बा नहीं था। बोना मेरे प्रारब्ध के अनुकूल भी नहीं था। जब जब बोया, सूका पड़ गई या वन-पशु चर गये। पशु बने बिना रखाना कठिन है। मुझे खूब याद है। मैंने बहुत नांह नूह की थी। मैंने
कहा था---"मुझे कहाँ बोना आता है? क्यों पास की माया को मिट्टी में मिलाती हो? ना, मुझे इसकी होंस नहीं है। तुम जाओ।"
इसी पर उसने मुझे मूर्ख बनाया। मेरा मजाक उड़ाकर कहा---"मूर्ख। देखता नहीं है। ऐसी कितनी बार चढती है? किसके इतने भाग है? बोने वाले एक एक बूँद को तरसते है। औसर चूकने पर क्या है? बो-बो-बो।"
मैं मूर्ख बन गया। स्त्री का मूख कहना नहीं सहा गया। पर मूर्ख बन गया। जो कुछ था उसे दे डाला। भूमि उर्वरा थी, वह उगा भी, पका भी और मुझे मिला भी। पर पचा