पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/११६

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नहीं। शरीर ढेर हो चुका था। इतने दिनों के आँधी मेहों ने कुछ न छोड़ा था। मैं गिर गया खा कर! लोग भूखों मरते हैं, मैं अघाकर मरा। धौले केशों पर धूल पड़ी। बुढ़ापे की मिट्टी ख्वार हुई। बात बनकर बिगड़ी। आबरू की पगड़ी की धज्जियाँ उड़ गई। मेरा क्या अपराध था? साहस मे तो कसर छोड़ी न थी। चिन्ता की भयंकर आग इस तरह छाती मे छिपाई थी कि एक लौ भी न दीखने पाई। शोक के घाव कपड़ों से ढक लिये थे। चेहरे की झुर्रियों को हँस कर और ऑखों की रुखाई को चश्मे से छिपा लिया था पर हाय रे बुढ़ापे! तेरा बुरा हो। तेरा सत्यानाश हो। अठ्यानाश हो। तैने सब गुड़ गोबर कर दिया। तैने मरे को मारा। तैने सूखे पेड़ को जड़ से ही उखाड़ पटका, निर्दयी!!

उसे कुछ परवा ही न थी। हँसती थी। उसी तरह बल्कि उससे भी अधिक जोर से। सफलता का गर्व उसके होठों और नेत्रों मे मस्ती कर रहा था और यौवन का गर्व उसकी छाती से फूटा पड़ता था। मैं कहाँ तक तन कर खड़ा होता? मैं हार गया। वह सब कुछ ले चली। मैंने घायल सिपाही की तरह ऑखों के अनुनय से रस की एक बूँद---सिर्फ एक बूँद मॉगी थी। क्या उस सरोवर मे एक बूँद से घाटा पड़ जाता? जब मेरे दिन थे तो बिन मॉगे छक जाता था। वही मैं था। वह


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