पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/११८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
मुक्ति

यही है वह। पर न देख सकता हूँ―न समझ सकता हूँ बुद्धि चरने चली गई, मन का पता नहीं। कठिनता से इतना मालूम होता है कि मैं हूँ, परन्तु कहाँ और कैसा? न कोई परिधि न रूप-रेखा। न भार न अवकाश। मानों मैं नहीं हूँ। तब मेरा यह ज्ञान किस आधार पर हैं? एक ज्योति चारों तरफ़ फैली देखता हूँ, पर उसके केन्द्र का कुछ पता नहीं लगता। ज्ञान की सारी गुत्थियाँ सुलझी हुई अनुभव होती हैं पर वह ज्ञान कुछ समझने मे सहायता नहीं करता है। सब को छूता हूँ, सब रसों का स्वाद बराबर आ रहा है, सब स्वर व्याप्त हो रहे