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'अन्तस्तल' दस वर्ष बाददुबारा छप कर पाठकों के सम्मुख जा रहा है। इन दस वर्षों में बहुत कुछ जीवन बदल गया। फिर 'अन्तस्तल' वही कहाँ रहता? इच्छा थी 'अन्तस्तल' की सभी वेदनाओं को इस बार आपके सम्मुख रखदूँ। मगर समय सहायक नही, नई किस्त मे 'मग्न' उपस्थित है, फिलहाल पाठक इसी पर सन्तोष करे मेरी यह विधवा रचना-युगधर्म का अनुसरण कर-एक बार 'दुलहिन' बनने की हविस पूरा किया चाहती है। जीवित रहा, और सम्भव हुआ, तो इस हविस को पूरी करने की चेष्टा करूंँगा। नहीं कह सकता, देखकर आप रोवेगे या हॅसेगे।
नई दिल्ली ता०९-१२-३० चतुरसेन