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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१२४

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की बात होगी। पर, स्वर्ण में यदि कुछ बनने की शक्ति है, तो इस्पात में भी तो कुछ बनने की शक्ति है? बुद्धिमानों को जिस पदार्थ मे जो बन सके, उससे वही बनाना चाहिये। मैंने प्रतिमा बनाने का विचार ही छोड़ दिया। मैंने उस खेड़ी के भदरंग टुकड़े को भट्टी मे डाल दिया। ज्वलन्त उत्ताप में तप कर उसका रंग भी लाल हो गया। फिर मैंने धड़ाधड़ उस पर चोटें की। धड़ाधड़। फिर पीटा; फिर तपाया। तह जमाई। तपाया और पीटा। ग्रीष्म की दुपहरी, झुलसाने वाली लू और वह भट्टी का असह उत्ताप, जवानी की नंगी छाती पर सहा। पसीना कालौंस और मैल से शरीर भर गया, कोमल स्वच्छ हाथ कठोर हो गये। पर मैं उस लोहे के टुकड़े के पीछे पड़ गया। जवानी के सारे उमंग भरे दिन उसी कड़े परिश्रम मे, ताप---पसीने और कालौस में निकल गये। मेरे कितने ही मित्र, जिन्हें मैंने बाल काल में उस कल्पित प्रतिमा की मोहनी झॉकी करने का बचन दिया था, अपने लिये एक एक प्रतिमा ले आये थे। वे शीतल वायु के झकोरों से भरी कुञ्जों में मुग्ध और तृप्त होकर उसे हृदय मन्दिर मे लिये बैठे थे। मैंने कभी उनके सुख सौभाग्य पर अपना मन न ललचाया, कभी उन पर डाह न की। अपने उस खेड़ी के टुकड़े को उनकी हीरों से लदी हुई सोने की

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