पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१२६

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मैने उसे समय के लिये यत्न से रख छोड़ा था। खयाल था, कभी आन और शान पर जूझने का समय आयगा, तब मेरी यह प्राणों से प्यारी वस्तु अपने जोहर दिखायगी। मेरे प्यारे मित्रों और सहयोगियों की सजीली स्वर्णप्रतिमाओं पर जब कोई भयंकर संकट उपस्थित होगा---तो मेरी यह सजीली चीज़ बिजली के समान एक ही तीव्र और असह्य कड़क दिखा कर अपनी वास्तविकता चरितार्थं करेगी। उसी समय मेरा जीवन और परिश्रम सफल होगा।

दो बार देवता उसे मांगने आये, पर मैंने उन्हें नहीं दी। इस संसार की तो किसी वस्तु के बदले मे मैं उसे दे ही नहीं सकता था, मैने उसे लोकोत्तर बदले में भी देने से इन्कार कर दिया।

उस दिन प्रात काल जाग कर देखा--वह धरती में दो टूक हुई पड़ी है। पहले तो मैं कुछ समझा ही नहीं। मैंने सोचा स्वप्न है, उँगली दॉतों से काट कर देखा, बाल नोच कर देखा! स्वप्न न था सत्य था!!!

कलेजा मसोस कर बैठ गया। अब कुछ नहीं हो सकता था। मित्र और बन्धु सुनते ही दौड़ आये। किसी ने कहा--लो, यह स्वर्णप्रतिमा ले लो। किसी ने कहा---यह मेरे नेत्रों

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