पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१२७

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की ज्योति ले लो। किसी ने कहा―यह मेरा सबसे बड़ा हीरा ले लो। पर! पर-खेड़ी का टुकड़ा तो किसी के पास न था। मैंने बैठे ही बैठे-जहाँ तक दृष्टि जा सकती थी-इधर उधर नीचे ऊपर देखा―नहीं था।।

खोजने जाने के अब दिन नहीं रहे। परिश्रम और उत्ताप सहने की शक्ति और साहस नहीं रहा। आराधना योग्य जवानी न रही। मन के हौसले और चाह मर गये। मैंने वे टूटे टुकड़े देवार्पण कर दिये। अब मैं अकेला बैठा हूँ, और सुस्ता कर जवानी के घोर परिश्रम की थकावट को उतार रहा हूँ।