पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१२८

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हास्य में हाहाकार

जीवन की हँसती हुई दुनियाँ का अन्त समय आ गया! ग्रीष्म के कृष्णपक्ष की सन्ध्या की तरह कराली काल की कालिमा ने उस भव्य मुखमंडल पर अधिकार जमा लिया। पर वे दोनों ऑखें सन्ध्या के तारे की तरह आनन्द बखेर रहीं थीं। वह मुझे देखकर जरा हॅसी। प्रतिपदा के चन्द्रमा की तरह अन्तिम बार उसकी धवल दन्त-पंक्ति के दर्शन हुये। प्यार का रहा सहा रस उस हँसी मे आ जूझा। वह दारुण महायात्रा की घण्टी हृदय धाम में सुन रही थी और अपनी स्मृतियों की गॉठ पोटली सँगवा कर बॉध रही थी। साथ ही सारे