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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१२९

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संसार से न सह सकने योग्य उस वेदना को---वह उस अन्तिम हास्य मे टालने की चेष्टा कर रही थी। उसने अपना सब साहस बटोर कर इकतारे के कम्पित स्वर में कहा---"स्वामी जी! खड़े क्यों हो, मेरे पास बैठ जाओ।"

मै खड़ा रहा। सामने दूध के समान शैया पर वह ढेर हुई पड़ी थी। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ---उस सन्ध्या के बढ़ते हुये अन्धेरे मे मै किसी नदी के तौर पर खड़ा हूँ और चॉदी के समान श्वेत वालुका के बीच क्षीणाङ्गी नदी दाव पेच खाती-चुप चाप पैरों के पास से बही चली जा रही है। अभिलाषा और अतीत को छायाये मूर्तिमान होकर सामने आ खड़ी हुई। सब प्रिय और मनोहर थीं। पर मैं उन्हे देखकर डर गया। उसने फिर उसी स्वर मे कहा---स्वामी! वास्तव मे निराशा का नाम ही जीवन है---फिर भी मनुष्य उसे प्यार करता है, मेरे पास बैठो-और कहो तुम जीवन को नहीं-मुझे प्यार करते थे!! मैं कुछ और ही सोच रहा था---मैं सोच रहा था---इस चलती बहती धार मे से और एक घूँट पी लूँ? मैं घुटनों के बल धरती पर वही बैठ गया!!!

साफ साफ कुछ नहीं दीखता था। मानों महारात्रि आ रही थी। ऑधी के झोकों से कम्पायमान जल की लहरों की तरह उसका श्वास उमण्ड रहा था। उसमे न हाय थी

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