पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१३५

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भरी रहती थी। नेत्रों में सदा दिन निकला रहता था। सृष्टि सदा पुष्पवाटिका के समान दीखती थी। जिसमे वही एक पुष्प था---जिसका रूप रंग और वास मुझे और कुछ देखने न देता था।

परन्तु कैसा आश्चर्य है? एक झपकी के बाद ही ऑख खोलने पर कुछ न पाया? जैसे इन्द्रियों को उन्माद हो गया हो। वह दीखती है पर समझ नहीं पड़ती। ये नेत्र दृष्टि से परे कुछ देखते है। ये अघोर चक्षु अनन्त से दूर कुछ सुन रहे हैं मैं कुछ समझ नहीं सकता, मैं जड़ हो गया हूँ। फिर भी जीवित तो अवश्य हूं।






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