पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१३७

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होकर चली- तब फिर मन मे आया कि कह ही दूँँ, पर मोह और अनवकाश ने कभी पीछा न छोड़ा। कभी एकान्तता न हुई। कभी अच्छी तरह देख न सका।

जीवन के ११ बर्ष बीत गये, जैसे सपने के दिन बीत जाते हैं, जैसे थकावट की रात बीत जाती है। हम दोनों धुन मे मस्त जबानी को उमग मे इठलाते हुए, वद-बद कर―एक से एक बढ़ कर―उदग्रीव होने की स्पर्धा करते हुये-बढ़े चले गये, बढे चले गये, बढ़े चले गये!!!

एकाएक वह रुक गई। मैंने बहुत हिलाया डुलाया पर कुछ न हुआ। गर्दन झुकती ही गई। ऑखें मिचती ही गई। वह होस, वह उमग, हास्य-गर्व-तेज सब कही खो गया। जैसे इन्द्र धनुष खो जाता है। जैसे रवर के कुप्पे की फूँँक निकल जाती है, उस घडी वह वात होठो पर ही आ गई थी, पर फिर वह पल भर भी न ठहरी।

अब तो कहने का कोई मौका ही न रहा पर वह बात अव भी हृदय मे वैसी ही धरी है। आँसुओं के साथ वह ऑखो मे आ जाती है और हास्य के साथ ओठों पर आ खड़ी होती है। मैंने उसे इन सत्रह वर्षों के दीर्घ काल मे बड़ी कठिनाई और विवेक से, हिन्दुओं की जवान विधवा

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