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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१३८

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बेटी की तरह दबोच कर भीतर ही रख छोड़ा है। हृदय मन्दिर के अन्तस्तल मे उसके स्थान पर इसी को मैंने बसा लिया है। वहीं अब उसके बाद मेरी जीवनसंगिनी है। और वह अपने प्रिय निवास के पात्रों में अपने सुहाग भरे हाथों से लबालब स्नेह भर गई थी उसमे मैने दिया जला दिया है। एक क्षण को भी मैने उसके पीछे उस मन्दिर को सूना और अन्धेरा नहीं छोड़ा है। आंधी और तूफान के झोंके आये, दीये की लौ कॉपी---पर बुझी नहीं। आशा होती है इस टूटती रात को पीली और ठण्डी घडियाँ भी, इसी धुधले प्रकाश के सहारे कट जावेगी। अभी पात्र मे स्नेह है, बहुत है।

जब दिन का प्रकाश फैल जायगा, मैं उसे ढूंढने निकलूंगा। जहाँ मिलेगी, वहीं भेंट होते ही अबकी बार पहिले वह बात कह दूंगा। उसे छोड़ कर वह बात और किसी से कहने योग्य ही नहीं है।



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