पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१४०

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हे अमल धवल उज्ज्वल उत्तप्त जल कण! हे हृदय के रसीले रस! ऐसा तो न करो, जब तक हृदय है तब तक उसी मे रहो, उसे इतना न निचोड़ो। कुछ अपनी आबरू का खयाल करो, कुछ मेरे प्यार का लिहाज़ करो, कुछ उस दिन का मान करो-जब रस बन कर रम रहे थे। कुछ उस दिन का ध्यान करो, जब बाहर आकर दुर्लभ दृश्य देखा था।

तुम उस दिन के लिये ठहरो प्यारे! जिस दिन अभिलाषा की साध पूरी होगी, तुम्हारा जी चाहे तो उस दिन तुम इन आँखों को बहा ले जाना, न हो अन्धी कर देना। मुझे फिर कुछ देखने की होंस न रहेगी।

हे आनन्द के उज्ज्वल मोती! इन आँखों मे तुम ऐसे सज रहे हो जैसे हरे भरे वृक्ष की नवीन रक्ताभ कोंपल। पर तुम्हारा ढरकना बहुत करुण है---बहुत उदास है, तुम ढरकते क्या हो, मानों प्यारों से भरा हुआ जहाज समुद्र मे डूब रहा हो। तुम्हारे इस ढरकने का नीरव रव ग्रीष्म की ऊषा के प्रारम्भिक अन्धकार मे अधजगे पक्षियों के कलरव के समान उदास मालूम होता है।

ढरक गये? हाय! तुम मेरी स्वर्गीया पत्नी के मृदुल प्यार की स्मृति की तरह प्यारे थे। तुम मेरे अनुत्पन्न पुत्र के छोटे से


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