पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१४३

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हर २ करती वही जा रही थी हम दोनों तुम्हे देख २ कर कुछ कह रहे थे। वे सब बाते तो अब याद नहीं है, पर वह समा तो सुर्मे की तरह आंखों मे समा रहा है। हमने समझा था तुम हमे हँसता देख सुख से हॅसते हो। पापात्मा! तुम्हे आज समझा अब तो वह दिन चला गया? अब और किसे क्या दिखाने आये हो? किसे लुभाने का इरादा है? मूर्ख! रस मे रस रस है पर नीरस मे रस विष है।

भागो यहाँ से, तुम्हारी चांदनी मुझे ऐगी प्रतीत होती है---जैसे मुर्दे पर सफेद कफन पडा हो, मैं डरता हूँ अब और नहीं देख सकता, हटो नेत्रों से दूर हो, नहीं मैं आखे फोड़ लूँगा।






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