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उस पथ की धूल की अपेक्षा, जिस पर तुमने सौभाग्य की चुनरी ओढ़ कर महायात्रा की थी, मै कितना अपदार्थ हूँ? उस विश्वास की अपेक्षा, जो तुम्हारा मुझ मे था, उस छोटे से पौदे की अपेक्षा, जो दस दिन बाद तुम्हारी चिता पर उग आया था, उस अनथक काल को अपेक्षा, जो तुम से दूर रहते मैंने व्यतीत किया, और उस आवश्यकता की अपेक्षा, जो तुम्हे जीवन भर मेरी रही,
मै कितता अपदार्थ हूँ। कितना अपदार्थ हूँ।। प्रिये, तुम्हारे सन्मुख तब और अब, सदा ही अपदार्थ रहा!!!