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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१४५

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वह सन्ध्या

जब सूर्य धीरे २ जल में डूब रहा था, और तारे उसके स्थान को ग्रहण कर रहे थे। तुम शुभ्र शिलाखण्ड पर पड़ी तल्लीन हो-उस अस्तंगत सूर्य को देख रही थीं। धवल अट्टालिका और आकाश का रक्त प्रतिविम्ब जल मे कॉप रहा था।

मैं तुम्हारे निकट आया और तुम्हे कम्पित हाथों मे उठा लिया। तुम 'नहीं, न कह सकीं' केवल सलज्ज हास्य मे झुक गई।

उस स्पर्श से ही, उसी क्षण--सम्पूर्ण तारुण्य मुझ मे जाग्रत हो गया और सम्पूर्ण प्रेम तुम मे। उस समय, पृथ्वी भर के पुष्पों के सौरभ को लेकर वायु तुम्हारी अलकावलियों से खेल रहा था।

परन्तु प्रिये, उस सन्ध्या की वह सन्धि कितनी कच्ची थी!!!