पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१४७

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माता ने अश्रुपूरित नेत्र और अवरुद्ध कण्ठ से कहा था- 'मेरा बेटा पृथ्वी विजय कर लाया है'। हम आतुरता से सोच रहे थे, कब यह वाद्य ध्वनि बन्द होगी, कब रात्रि आवेगी, कब द्वार बन्द करने का धीमा शब्द होगा, और वह चिर अभिलषित रहस्य पूर्ण स्नेह स्रोत का उद्घाटन होगा।

प्रथम बार तुम जब बोलीं---तब तुमने कहा था--स्वामिन्!

कितने लोग आप से भय खाते है और कितने आपके सन्मुख श्रद्धा से अवनत हो जाते है। मेरे जीवन के स्वामी, मुझे निर्भय करो, मुझे अभय दान दो, मुझे साहस दो कि मैं अपनी सबसे प्यारी वस्तु के निकट आऊँ।

× × ×

आज मैं अनुभव करता हूँ---प्रेम एक स्वप्न है और जीवन कदाचित् उससे कुछ अधिक।।




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