पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१४९

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शुभाग्नि

उस चुम्बन की शुभ्र ऊष्मा से मेरे ही अधरों ने फूंककर आत्मा मे आग सुलगाई है, वह आज हृद्गहृर मे कैसी जल रही है। कैसी ज्योतिर्मयी उसकी लौ है। मैं उससे झुलसा तो जा रहा हूँ पर उसी के सहारे इस लोक से परलोक तक साफ साफ देख पाता हूँ।

इस विनाश और अनन्त वियोग के बाद भी वही कोमल केश गुच्छ, वही मधुवर्षिणी दृष्टि, वही सुवर्ण देह यष्ठि, वही वीणा विनन्दित स्वर लहरी, वे रहस्यमय, भावावेशपूर्ण मधुरमन्दोच्चारित शब्द, और अस्तंगत सूर्य की रक्ताभरश्मिका उन्मुक्त प्रतिविम्ब!!

ओह, अक्षयपुण्यवती, इस मृत्यु के भिक्षुक का भी कल्याण करो।