पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१५३

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अभिलाषा

तुम सुख निदिया सोओ प्रिये, और मुझे कुछ सोचने दो, उन मृदुल अलकावलियों और सुगन्धित श्वासों के सम्बन्ध मे जिन से मेरे चारों ओर का वातावरण ओत-प्रोत हो रहा है, और उस प्रम के विषय मे जिसकी स्मृति हृदय मे आज भी वैसी

इन फूलों से लदे वृक्षों की सघन छाया मे बैठ कर, कलकल बहती हुई गंगा की धारा का यह सौन्दर्य और एक बार देखलूँ, फिर तो जीवन के अस्तंगत दिवस के प्रकाश को इस अज्ञात अन्धकार की छाया ढॉपती चली आ ही रही है।

प्रिये, अपने विशुद्ध अन्तःकरण में मेरे लिये थोड़ा प्रेम और क्षमा अन्त तक बनाए रखना।