पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१५४

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निस्तब्धता

प्रिये, मैंने खूब गाया और खूब ही चुप रहा पर तुमने दोनों में से कुछ भी न चाहा।

मैं सदा ही अधिक बोला करता था, अब इतनी निस्तब्धता क्या तुम पसन्द करती हो?