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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१६३

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पथिक

ज्येष्ठ बीत रहा है।

कैसी दुर्धर्ष दुपहरी है।

ज्वलन्त सूर्य से पृथ्वी तप रही है।

घास सूख गई है, और वनस्पति मुर्भा रहीं हैं। चील अण्डे छोड़ रही है, तमाम रात गीदड़ रोते रहे हैं, जगत भयानक प्रतीत होता है, प्राणियों के प्राण मुँह को आ रहे हैं।

सामने यह किसका मनोरम उद्यान है? कैसा शीतल और मीठे पानी का झरना वहां बह रहा है? ये सघन कुजें