अनुभवित-तुम्हारे स्वीकृत प्रम का स्वप्न देख रहा होऊँ।
---मैं अकेला हूँ, मेरी यात्रा समाप्त हो चुकी है, आज की रात्रि यहीं विश्राम करूँगा। अभी भग्न दीवार की इस छाया मे बैठकर मैं थकान उतार रहा हूँ। इस चटखती हुई चमेली की छाया मे, जहाँ सूखे हुए फूल झड़े पडे हैं। यदि मुझे बिश्राम का स्थान मिल जाय तो कैसा? मेरी समस्त स्मृतियाँ उन सूखे पुष्पों की भॉति झड जायँ तो कैसा?
मुझे प्रतीत होता है कुछ अज्ञात निर्मम वस्तु मेरे कण्ठ मे हार वन कर लटक रही है। कोई निर्दय शक्ति सूर्यमण्डल मे बिना लज्जा और भय के हँस रही है।
किन्तु प्रिये, उस पुरुष के लिये यह सब क्या है जो कब का नष्ट हो चुका है।
मैं यह सोच रहा हूं जब जीवन की पूर्ण कलाएँ विकसित हो रही थीं, एक मनोरम पारिजात कुसुम की भांति वह खिल रहा था, शोभा और सौरभ फूट फूट कर बह रहा था, तब-प्रेम कहीं से आ गया और उसने क्षण भर ही मे सब कुछ विनष्ट कर दिया।
मैं अकेला बैठा हूँ॥
मैं वासना त्याग चुका हूँ, प्रेम की याचना करने का
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