पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१७३

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स्वप्न

अभी मैं तुम्हारा स्वप्न देखकर उठा हूं। उस स्वप्न को देख कर मैं व्याकुल हो उठा हूं। वे तुम्हारे स्निग्ध नेत्र और सजीव अलकावलियाॅ मैंने अभी देखीं है। आह, स्वप्न एक मिथ्या वस्तु है परन्तु मैं उसे तुम्हारे ही समान प्यार करता हूॅ। वे कितनी शीघ्र खो जाते हैं जैसे तुम खो गईं। पर प्रिये, मेरे जीवन की आशा डोरी उसी स्वप्न राज्य में होकर तुम तक पहुँचती है।