पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१७९

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अगम्य के प्रति

मेरा रक्त शीतल जल हो गया है, प्रिये क्या तुम प्यासी हो? किन्तु, इस अनन्त मरुदेश मे हम तुम परस्पर कितनी दूर है।

इस ऊष्ण बालुका पर पतन होने से पूर्व सिर्फ एक बार उस स्वप्न चुम्बन की, उस अमृत विन्दु की आशा करना कितना दुस्साहस है?

क्या फिर सम्मेलन होगा?

ओह, प्रेम और आकाक्षा से दूर, अतिदूर वह तुम्हारा स्वर्ण प्रतिबिम्ब कैसा अपूर्व है। वह स्थिर है, किन्तु