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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१८७

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वह मधुर चितवन

ओह! वह मधुर चितवन। वे नेत्र, जो अस्त होते हुए सूर्य के से प्रतिविम्ब रक्ताम्बर के छोटे से तारे के समान थे, क्या मैं कभी उन्हे स्वप्न में देखने का साहम भी न करूं?

उस दिन, तुम मुझे देखकर मुस्कुराई थीं, तब मैं अपने जीवन के समस्त उल्लास के साथ दौड़ा था और कहा था ठहरो, पर तुम किस लोक मे हँसने को चली गई? सिर्फ एक बार हँस कर।