सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/२०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
सुख

उसका कोई रूप न था। वह केवल एक अछूती कल्पना थी, जिसका अस्तित्व ओस की बूँँद की भाति था जो छूते ही खो जाती है।

मैंने उसकी चाहना की। मैंने समझा वह प्यार का मतवाला भौंरा है, मैं प्यार की पुतली को खोज लाया और अपने प्राण उसके अर्पण कर दिये, पर वह नहीं आया। मैंने सोचा वह धन का लालची कुत्ता है, मैंने धन की राशि संग्रह की और अपना मनुष्यत्व उसे अर्पण किया―वह फिर भी नहीं आया। मैंने विचार कर देखा-वह ज्ञान का गाहक है, मैंने ज्ञान के कपाट खोल दिये और भावना की सारी