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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/२०७

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पागल

सच कह, क्या देखा? शून्याकाश के अनन्त विस्तार को तू चाह भरी मदमाती आखो से घटों देखता है, कुछ गुनगुनाता है और पीछे मुस्कुराता है। तू किस ग्यारे को देख रहा है? किस अभिन्न मे घुल २ कर मन की मी बाते कर रहा है? जा किसी को जान नही पडतीं। हम बुद्विमत्ता और ज्ञान के घमण्डी, तेरी आँखो पर डाह करते हैं। ईश्वर के लिये कुछ हम अन्धों को भी दिखा दे। दिखाना न बने तो कुछ समझा ही दे। इस अनन्त विश्व में अतृप्ति और तृष्णा की विकलता भरी हुई है। दुख और निराशा की हाय भरी हुई है। क्या यह तू