में जा बैठते थे। बातों का, तार कभी नहीं टूटता था। रोग तो देखा नहीं था, चिन्ता से तब तक व्याह नहीं हुआ था, शोक
का अभी जन्म ही नहीं हुआ था। मौज थी, उछाह था प्रेम था। हम दोनों उसे खूब खाते थे और बखेरते थे।
मुझे रोज़, एक पैसा पिता जी देते थे। अठवाड़े के पैसे इकट्ठे करके मै उनकी दावत करता था। जङ्गल के एकान्त मे, चाँदनी की चमक मे, हम लोग एक दूसरे को देखा करते थे। अब कुछ याद नहीं रहा, क्या २ बातें होती थीं, पर इतना कह सकता हूँ कि कांग्रेस मे और बड़े लाट-की कौन्सिल मे, व्याख्यान देकर, बड़े बड़े राजा महाराजाओं से मुलाकात करके जो गर्व---जो प्रसन्नता आज नहीं मिलती है, वह उस बातचीत में मिलती थी। जिस दिन वह बात न होती थी उस दिन नीद न आती थी, भोजन न रुचता था छुट्टी का दिन बुरा दिन था। गर्मी की छुट्टियाँ तो काल थीं। उसमे वे पिता के पास चले जाया करते थे। दो महीने का वियोग होता था।
जब वे ज्यादा लाड़ मे आते थे 'तू तू' करके बोलते थे। और भी ज्यादा प्यार करते तो घूसों से घड़ते थे। मैं उन्हे कभी न मारता था, उनकी माता पर फरियाद करता था, वे उन्हे धमका कर कहती थीं---"पगले। बड़े भाई से इस तरह बोला करते हैं? ऐसा गधापन किया करते हैं?"