पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/३७

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अतृप्ति

हृदय! अब तुम क्या करोगे? तुम जिसके लिये इतना सज धज कर बैठे थे उसका तो जवाब आ गया। जन्म से लेकर आज तक जो तुमने सीखा था-जिसका अभ्यास किया था, उसकी तो अब जरूरत ही नहीं रही। न जाने तुम्हारा कैसा स्वभाव था। तुम सब कुछ फिर के लिये उठा रखते थे। तुमने तृप्त होकर भी उससे बात नहीं करने दी। आँख भर कर कभी उसे देखने नहीं दिया। मन भर कभी प्यार नहीं करने दिया। तुम यह सब काम फिरके लिये उठा रखते थे। तुम कहते में