पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/३८

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डर क्या है? कोई गैर तो है ही नहीं, अपनी ही वस्तु है। फिर देखा जायगा। अब कहो---अब भी फिर देखने की आशा करते हो?

तुम वर्तमान को कुछ समझते ही न थे। तुम उसे स्वप्न कह कर पुकारते थे। कभी कभी उसे छाया कहकर उसका तिरस्कार करते थे। मैं तुम्हे कितना समझाता था---वर्तमान से लाभ उठाओ, वर्तमान दौड़ा जा रहा है। इसे पकड़ लो। पर तुम आलसी की तरह नित्य यही कहते थे---जाने भी दो, वह भविष्य आता है। वही पका हुआ सुख है वही अनन्त है। यह वर्तमान तो मुसाफिर की तरह भाग दौड़ में है। इसमे कितना सुख भोगा जाय? आने दो भविष्य के धवल महल को। वहाँ तृप्त होकर पीवेगे और जी भर कर सोवेगे। लो अब बताओ कहाँ हैं---अब वे अट्टालिकाऐं? वह धवल महल? मैं बहुत भूखा हूँ, प्यासा हूँ, थका हुआ हूँ। मैं अब चलकर रस पीऊंगा और जरा सोऊंगा।

क्यों? सुस्त क्यों, हो गये? ठण्डे क्यों पड़ गये? चुप क्यों हो गये? बोलो न, मेरा जी घबड़ा रहा है। तुम्हे देखकर बेचैनी बढ़ रही है। सच कहो मामला क्या है? तुम्हारे विश्वास पर, तुम्हारी बातोंमे आकर मैंने अपने जन्म-जन्मान्तरों की पूजी लगा दी थी। तुम्हारी योग्यता पर मुझे भरोसा था। मैंने तुम्हे देखा भाला नहीं, कुछ खोज-जॉच नहीं की। तुमने जो