पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/३९

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कहा, आँख कान बन्द करके मान लिया। अब बताओ क्या करूँ? न तब तुम्हारा कहना टाला था-न अब टालूँगा।

बताओ न? अब क्या करू? चुप क्यों हो? स्तब्ध क्यों बैठे हो? क्या कारबार एकदम फेल हो गया? या दिवाला निकल गया? मैं अब कहीं का न रहा? बोलो न, इस तरह चुपचाप आह भरने से तो न चलेगा।

वे दिन अब भी याद हैं। मानो वही दृश्य वही समय वही छटावही सब कुछ ऑखो मे फिर रहा है। पर ऑखों के सामने कुछ नहीं है। हाय! कैसी वह नदी थी, कैसा उसपर स्वच्छ चन्द्र और नीलाकाश चमक रहा था, कैसा उसका प्रतिविम्ब जल मे पड़ रहा था कैसी उसके तट के श्याम छाया रूप वृक्ष और लतायें झुक झुक कर पंखा कर रही थीं। और तुम मुझे कुछ भी पेट भरके देखने नहीं देते थे। जब मैं चन्द्र को देखता था तब तुम कहते---नहीं पहले इस जल की छटा को देखो। जब मैं उसे देखता था---तब तुम कहते--नहीं पहले इस निकुंज छाया को देखो। मैं जब उसे देखता तब तुम कहते थे---नहीं, पहले इस छप छप शब्द को सुनो। फिर तुम मेरी ऑखे बन्द कर देते थे। मुझसे तुम्हें क्या जलन थी? सुख से तुम्हे क्या चिढ़ थी? तृप्ति से तुम्हे क्या द्वेष था?