पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/४२

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और क्यों मैं सुहाग की रात को विधवा होती। मैं इतना भी सहती -- बहुत स्त्रियाॅ सहती है। पर आप क्यों मिल गये! यही कठिन हुआ। यही नहीं सहा जाता। आग जल रही है। जी जला जाता है -- पर धैर्य और अभ्यास से वश में करूॅगी। यह सच है कि सुख में प्रलोभन है, पर मैंने उसे चखना एक ओर रहा -- छू कर भी नहीं देखा। यही खैर हुई। वरना क्या होता? आज क्या यह पत्र लिख सकती? मन इतना साहस कहाॅ पाता? ऑसू आ रहे हैं, शरीर का रक्त मस्तक मे इकट्ठा हो रहा है और नसों की तन्त्री झनझना रही है। रह रह कर मन में आता है इस पत्र को फाड़ दूॅ। पर यह असम्भव है। इतनी हिम्मत से -- इतने साहस से -- इतनी वीरता से जो पत्र लिखा है उसे फाड़ूॅगी नहीं। क्या आप इसका मूल्य समझेगे?

मैं समझती हूँ इस पत्र को पढ़ कर आपको वेदना होगी। पर क्या किया जाय? उसे सह लीजियेगा -- मेरी ओर देख कर सह लीजियेगा। मैं अबला स्त्री हूॅ। मुझमे दम ही कितना है! बचपन में पशु पक्षियों को चार दाने डालकर मुझे कितना गर्व होता था। मैं कितनी इतराती थी। यहीं तक मैं दुनियाॅ में किसी को सुख दे सकी। मेरी सेवा का पृथ्वी पर यही उपयोग

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