पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/४५

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अनुताप

किसी को मुँँह नहीं दिखाता हूँ, पर लज्जा फिर भी पीछा नहीं छोड़ती है। छिप कर रहता हूँ पर मन में शान्ति नहीं है। दिन रात भूलने की चेष्टा करने पर भी स्मृति की गम्भीर रेखा मिटती ही नहीं है, हृत्पटल पर उसका घाव हो गया है। उधर ध्यान पहुँचते ही वह घाव कसक उठता है। मनकी ज्वाला सांस के साथ भड़क उठती है। ऑसुओं की अविरल धारा सूख गई―पर उसे न बुझा सकी। सांस की धोंकनी से वह भड़कती है। चाह मर गई और आशा की जड़ को कीड़ा खा गया है।