उसकी ओर देख रहा था और वह भय से चारों ओर देख रही थी। उसका स्वामी तब भी मेरा नौकर था।
उस समय मैं प्रेम का कङ्गाल नहीं था। मेरे घर में प्रेम सरोवर लहरें मार रहा था। वह प्रम नहीं, पाप था। तब मैंने पाप की परवाह न की। मैंने उसे देख कर भी न देखा। उस समय उसे देखे बिना कल नहीं पड़ती थी। आज उसे सोचकर कॉप उठता हूँ।
जब वह गर्मागर्म थाल मेरे भोग मे था, तब एक दिन, उन दिनों उसका पति मेरा नौकर था--मैंने उससे कुछ उसका ज़िक्र किया था। शायद याद नहीं--उसने क्या कहा था, पर भाषा उसकी गॅवारू और अलंकारशून्य थी। फिर भी उसमे उत्कट स्त्री व्रत और स्त्री प्रेम का वर्णन था। इतना मुझे याद है कि अपनी स्त्री का ज़िक्र करते करते उत्फुल्लता के मारे उसकी ऑखों मे आँसू आ गये थे। मुझे इस बात के प्रारम्भ मे जो सुख मिला वह तत्क्षण ही विलीन हो गया। उसी दिन मैंने अपने को तुच्छ समझा उसी दिन मनमे अनुताप का बीज उगा। उसके बाद? उसके बाद ही उसने मुझे पहचाना। प्रथम उसने मौन कोप किया, पीछे अवज्ञा की, तदनन्तर गुस्ताख़ी की और अन्त मे उसने सामना किया। निदान मैंने अपनी क्षमता से