तो मेरे शरीर मे खून की गति रुक गई थी--मैं उसे एकटक
देखता ही रह गया था। मैंने हारकर उसी से पूँछा था---"बोल
क्या लेगी?" और माता ने आकर अपना कगन उसे दे डाला था।
उस घटना को आज पूरे ७ महीने १३ दिन हुए है। आज मैने उसे धरती मे गाड़ दिया। मेरे साथ मेरे और दो तीन बन्धु थे। सबने जी जान से सहायता दी। एक ने गढ़ा खोदा, एक ने उस मे से मिट्टी निकाली, एक ने मेरे लाल को उसमे रख दिया। फिर उसके ऊपर सबने जल्दी जल्दी मिट्टी डाल दी। उनका कहना था--ऐसे काम मे भी यदि वे सहायक न हुए, ऐसे मौकों पर ही यदि उन्होंने तत्परता न दिखाई तो उनकी मित्रता ही क्या? उनका बन्धुत्व फिर किस काम आवेगा?
परसों शाम को ज़ब मैंने उसे देखा था, तब वह मुझे देखकर हँसा था, अपने नन्हे नन्हे हाथ उसने ऊपर को उठाये थे। पर मैने उसे गोद में लिया नहीं। मुझे डर था कि बुखार कहीं फिर न चढ़ जाय। पर बुखार चढ़ा और जब उतरा तब बचुआ भी उतर गया। मै व्यर्थ ही डरा-गोद मे भी न ले सका! कुछ तो सुख मिलता, कुछ तो तसल्ली होती। उसके बाद वह फिर न हॅसा। आज वह बिलकुल सफेद हो गया था। ऑखे आधी बन्द थीं---सांस नहीं था-शरीर गर्म