पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/५८

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मुस्कराहट-वह-वह वह-वह सब चली गई!! चली गई!! जैसे फूल से सुगंध उड़ जाती है, जैसे नदी का पानी सूख जाता है, जैसे चन्द्र ग्रहण पड़ जाता है? जैसे? ठहरो सोचता हूँ--जैसे? नहीं कुछ याद नहीं आता। जैसे!...हाँ! जैसे दिये का तेल जल जाता है वैसे ही उसकी नन्ही सी जान निकल गई थी।

मेरी स्त्री ने कहा---कहाँ रख आये? इतनी सर्दी मे? उस गीली मट्टी मे? अक्ल तो नहीं मारी गई। जो बचुआ को सर्दी लग जाय? ये गदेले और रजाई तो यहाँ पड़ी हैं। जो बचुआ की हड्डियों मे ठण्ड बैठ जाय तो क्या खॉसी दम लेने देगी? इसीलिये तुमको दिया था? ठहरो मैं लिये आती हूँ। वह पागल की तरह दौड़ी। मेरे सिर मे कई गोलियाँ सी लग रही थी। भतीजी ने कहा कहाँ है भैया? चाची ठहर! मैं लाती हूँ---चलो बताओ कहाँ है? बूढी माँ बोली नहीं। रो रही थी, रो रही थी, रो रही थी, चुप, मौन-रो रही थी। चुपचाप ही उसने बेटी को छाती से लगा लिया। मैं स्त्री को कुछ न कह सका। वह मेरे पैरों पर पड़ी थी-मैं मानों आस्मान की ओर उड़ रहा भा-आँखें निकली पड़ती थीं दम घुट रहा था---मैंने