पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/५९

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कमीज का बटन जोर से तोड़ डाला। मैं खम्भे का सहारा लिये खडा रहा।

वह एक बार फिर मिला। सन्ध्या काल था और गङ्गा चुप- चाप बह रही थी। वह चॉदी सी रेती में फूल जमा करके कुछ खेल सा रहा था। मैं कुछ दूर था। मैंने कहा—आ-मेरे पास आ। उसने ताली पीटकर कहा―ना, मेरे पास आ। मैं गया। वहाँ की हवा सुगन्ध से भर रही थी। मैं कुछ ठण्डा सा होने लगा। उसके चेहरे पर कुछ किरणे चमक रही थीं। मैंने कहा “बिटुआ! धूप में ज्यादा मत खेलो।” उसने हॅस दिया। सुन्दरता लहरा उठी। उसने एक फूल दिखा कर कहा―“अच्छा इस फूल का क्या रॅग है?” मेरा रक्त नाव उठा। अरे! बेटा तो बोलना सीख गया। मैंने लपक कर फूल उसके हाथ से लेना चाहा, वह और दूर दौड गया―उसने कहा―“ना, इसे छूना नहीं। इस फूल को दुनियाँँ की हवा नहीं लगी है और न इसकी गन्ध इसमें से बाहर को उड़ी है। ये देव पूजा के फूल हैं―ये विलास की सजाई में काम न आवेगे।“ इतना कह कर विटुआ गङ्गा की ओर दौड़ कर उसी मे खो गया। मैं कुछ दौड़ा तो―पर पानी से डर गया। इतने में ही आँख खुल गई। घुप अन्धकार था। हाय, वह स्वप्न था। वह भी आया और गया? अब?

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