कभी वाह, कभी आँखों में आँसू आ जाते है, कभी होठों पर मुस्कराहट। अन्तस्तल मे कभी कभी के प्रस्तुत भाव सहसा जागृत हो उठते है, छिपे हुए दिली जज़बात आँखों के सामने आकर नाचने लगते है।
प्रस्तुत पुस्तक 'अन्तस्तल' इसका एक उत्तम उदाहरण है।
इसमे अन्तस्तल के चतुर चितेरे ने बड़े कौशल से—बड़ी सफाई से—मानसिक भावों के विविध रूप-रज के विचित्र चित्र खीचकर कमाल का काम किया है। मैं उन्हे इस सफलता पर बधाई देता हूँ। 'अन्तस्तल' हिन्दी मे निःसन्देह अपने ढग की एक नई रचना है। यह पाठक और लेखक दोनो के काम की चीज है। समझदार पाठकों के लिये यह शिक्षाप्रद मनोविनोद की सामग्री है और लेखकों के लिये भाव चित्रण के दिग्दर्शन का बढिया साधन। इसकी वर्णनशैली मे और भाषा मे स्वाभाविकता है, इस कारण कही-कही प्रान्तीयता की झलक है, पर भाव पूर्ण चित्रों की मनोहरता मे वह खटकती नहीं, उसे गुल्लाला का दाग, चाँद का धब्बा या कमलपुष्प पर पड़ी हुई शैवाल की पत्ती समझ सक्ते है।
मैं आशा करता हूँ हिन्दी साहित्य मे यह पुस्तक वह आदर और प्रचार पायगी जिसके यह योग्य है।
महाविद्यालय,ज्वालापुर | पद्मसिंह शर्मा। |
श्रावण कृष्ण ३ शुक्रवार | |
संवत् १९७८ वि॰। |